राशिद जहाँ: क्रांतिकारी डॉक्टर जिन्होंने हिंदुस्तानी साहित्य में प्रज्वलित कर दिया
प्रस्तावना
एक ऐसी किताब, जो इतनी विस्फोटक थी कि ब्रिटिश साम्राज्य ने कुछ ही हफ़्तों में उस पर प्रतिबंध लगा दिया, आक्रोशित रूढ़िवादियों ने उसे सड़कों पर जलाया और जिसने १९३० के दशक के भारत में साहित्यिक क्रांति छेड़ दी।
एक लेखिका, एक अग्रणी महिला, स्त्री-रोग विशेषज्ञ, जो “लाज” के पर्दे के पीछे चुपचाप पीड़ा सह रही महिलाओं का इलाज करती थीं और साथ ही साथ औपनिवेशिक ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ भूमिगत प्रतिरोध का संगठन भी करती थीं।
एक ऐसी महिला जिनके स्टीथोस्कोप, कलम और साम्यवादी सिद्धांत ने उन्हें २०वीं सदी के भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे क्रांतकारियों में से एक बनाता है।
उनका जीवन अपने घर से दूर, मॉस्को के एक अस्पताल में समाप्त हुआ, लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप की लाखों महिलाओं के लिए जो मुक्ति-यात्रा उन्होंने शुरू की थी, वह आज भी जारी है।
इस्मत चुगताई की मौसी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव मोहम्मद-उज़-ज़फ़र की पत्नी, और हस्तियों की भी हस्ती; जिन्हे जवाहरलाल नेहरू उनके अंतिम दिनों में मिलने पहुँचे और जीवित श्रद्धांजलि दी।
वह महिला, वह प्रतीक, वह निडर नारीवादी, कामरेड राशिद जहाँ (१९०५-१९५२)।
1. पहले कदम
अलीगढ़ के एक प्रगतिशील परिवार में जन्मी, उन्होंने बचपन से ही पर्दा प्रथा को ठुकरा दिया।
उस दौर में जब मुस्लिम महिलाओं पर कठोर सामाजिक प्रतिबंध थे, उन्होंने लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज से चिकित्सा की डिग्री प्राप्त की।
उनकी शिक्षा ने उन्हें उत्पीड़न की कई परतों — लिंग, वर्ग और औपनिवेशिक शासन — को चुनौती देने के लिए सक्षम बनाया।
2. क्लिनिक में क्रांति: स्त्री-रोग को नारीवादी संघर्ष बनाना
स्त्री रोग के इलाज के बहाने उन्हें पपर्दे की प्रथा के पीछे का क्रूर सच देखने को शख्स किया।
उन्होंने बाल विवाह, असफल गर्भपात और उपेक्षा से हुई चोटों का इलाज किया — वे सच्चियाँ जिन्हें समाज दबा देना चाहता था।
उनकी चिकित्सीय टिप्पणियाँ उनके लेखन का आधार बनीं, विशेषकर “परदे के पीछे” (कहानी) में।
बढ़ती राजनीतिक शत्रुता के बावजूद, उन्होंने झोपड़ी और गंदी बस्तियों में गरीब महिलाओं की सेवा जारी रखी।
अक्सर अपनी चिकित्सीय कमाई को राजनीतिक कार्यों में लगा देती थीं और आर्थिक कठिनाइयों का सामना करती थीं।
उनका क्लिनिक इंकलाबी और सशक्तिकरण दोनों का स्थल था, जिसने महिलाओं को राजनीतिक और सामाजिक आवाज़ प्रदान की।
3. चिंगारी: ‘अंगारे’ और इंकलाब का जन्म
1932 में उन्होंने कामरेड सज्जाद ज़हीर, अहमद अली और महमूद-उज़-ज़फ़र के साथ मिलकर ‘अंगारे’ पुस्तक लिखी।
इसमें धार्मिक पाखंड, घरेलू तानाशाही और यौन दमन पर सीधा प्रहार किया गया — ख़ासकर “दिल्ली की सैर” में (दिल्ली की सैर अंगारे पुस्तक की कई कहानियों से एक कहानी थी) ।
प्रतिक्रिया तत्काल और हिंसक थी: मार्च १९३३ में भारतीय दंड संहिता की धारा ‘२९५ अ ’के तहत पुस्तक प्रतिबंधित की गई, प्रतियाँ जलाई गईं और फ़तवे जारी हुए।
अकेली महिला लेखिका होने के कारण उन्हें लैंगिक धमकियाँ मिलीं — जैसे “नाक काट देना” — और उनके परिवार के स्कूल को सार्वजनिक रूप से “वेश्यालय” कहा गया।
अंगारे पुस्तक के बाद प्रगतिशील लेखक संघ (PWA) की स्थापना की गई, जिसमें वे संस्थापक सदस्य बनीं, इस्मत चुगताई जैसी आवाज़ों को प्रेरित किया और उर्दू यथार्थवाद की दिशा बदल दी।
उनकी अवज्ञा ने उन्हें स्थायी उपनाम दिलवाया: “अंगारे वाली”।
4. कलम और पिस्तौल: साम्यवादी क्रांतिकारी
सज्जाद ज़हीर से विवाह किया, जो PWA और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) दोनों में प्रमुख नेता थे।
साहित्य से परे, उन्होंने भूमिगत राजनीतिक कार्य किया: मज़दूरों और किसानों का संगठन, प्रतिबंधित साहित्य का वितरण और ब्रिटिश नज़रबंदी का सामना किया।
उन्होंने महिलाओं की मुक्ति को वर्ग शोषण और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष से अविभाज्य माना।
चिकित्सा, लेखन और राजनीति — ये तीनों उनके लिए एक ही इंकलाबी तरीके के अलग चेहरे थे।
5. अंतिम यात्रा: मॉस्को, १९५२
१९४० के दशक के अंत में कैंसर का निदान हुआ, बटवारे के बाद के भारत में उपचार की सीमित संभावनाएँ थीं।
उन्होंने उपचार के लिए सोवियत संघ को चुना, अपने वैचारिक समर्पण का प्रतीकात्मक संकेत।
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू स्वयं अस्पताल में उनसे मिलने पहुँचे।
मृत्युशैया पर उन्होंने कहा: “मुझे बस एक अफ़सोस है – कि मैं भारत का एक कोना भी आज़ाद नहीं देख सकी।”
२९ जुलाई १९५२ को ४७ वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ और उन्हें मॉस्को के नोवोदेविची कब्रिस्तान में दफ़नाया गया।
6. विरासत: सुलगते अंगारे
हमेशा के लिए “अंगारे वाली” के नाम से जानी गईं, उनका जीवन निर्भय इंकलाबी बगावत का प्रतीक रहा।
उन्होंने महिलाओं की शारीरिक स्वायत्तता और उनके अनुभवों को उस समय केंद्र में रखा जब “इंटरसेक्शनैलिटी” शब्द तक अस्तित्व में नहीं था।
प्रगतिशील लेखक संघ की आधारशिला के रूप में उन्होंने आधुनिक उर्दू साहित्य पर अमिट छाप छोड़ी।
उन्होंने उपनिवेशवाद, धार्मिक रूढ़िवाद, पितृसत्ता और वर्ग पदानुक्रम — चारों मोर्चों पर संघर्ष किया।
जो वर्जनाएँ उन्होंने तोड़ीं — स्त्री कामुकता, प्रजनन स्वास्थ्य और धार्मिक पाखंड — आज साहित्य, मीडिया और नारीवाद के वो मुख्य विषय हैं।
उनके संघर्ष: सेंसरशिप, अकादमिक हिचकिचाहट (इंकलाबी विषयों के साथ जूझने की) और प्रतिक्रियावादी धमकियाँ, आज भी महिलावादी संघर्षकारो को उतनेही कडवेपद रहे है, उनकी ज़िन्दगी वो मिसाल है की न ही सिर्फ आवाज़ उठायी जा सकती है, बल्कि नारी विरोधी प्रतिघाती तत्वों को मुहतोड़ दियाजा सकता है ।
उनकी ज्वाला आज भी उन लेखकों, कार्यकर्ताओं और राजनीतिक आंदोलनोंमें जलरहि है जो रूढ़िवाद के सामने झुकने से इंकार करते हैं।
निष्कर्ष
कामरेड राशिद जहाँ कई क्षेत्रों में अग्रणी थीं। उनसे पहले कुछ महिला स्त्री-रोग विशेषज्ञ हुई और उनके बाद अनेक प्रभावशाली डॉक्टर बनीं, पर डॉक्टर के रूप में उनकी विशिष्टता यह थी कि उन्होंने अपने विज्ञान को सिर्फ़ उपचार तक सीमित नहीं रखा।
उन्होंने महिलाओं की शारीरिक पीड़ा के मूल कारणों को चुनौती दी और सीधा प्रश्न रखा: क्या महिलाएँ अपने शरीर की मालिक हैं?
उनकी साहित्यिक रचनाओं ने भारतीय धार्मिक विमर्श को हिला दिया और आधुनिक नारीवादी उर्दू व हिंदुस्तानी साहित्य की भाषा और स्वर निर्धारित किए।
उन्होंने अपने साथियों के साथ क्रांतिकारी गतिविधियाँ आयोजित कीं और निर्भीक होकर लड़ीं।
मेरे लिए, व्यक्तिगत रूप से, उनके अनेक सिद्धियों के बावजूद एक साधी सी सिद्धि सबसे ऊपर है, वह है: साम्यवादी होना क्या होता है।
आखिर में, में उनके संघर्ष, जीवन और लेखन का संयुक्त वाकया दूँ तो शायद ये छोटासा वाक्य ही काफी है, जो उनकी कब्र पर आजभी कोटरा हुआ है, उनकी खुदकी इच्छा से, एक साम्यवादी डॉक्टर ।